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अजर-अमर हैं हनुमान

हनुमान जी की महिमा



अन्जनी गर्भ सम्भूतोवायु पुत्रों महावल।
कुमारो वृह्मïचारिश्च हनुमन्ताय नमोनम:

आन्जनेय नन्दन श्री बजरंग बली के विषय में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा
में उल्लेख किया है,,,

"चारो जुग परताप तुम्हार।
है प्रसिद्द जगत उजियारा।।",,,,

श्री मारूत नन्दन सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग
में कब-कब कहाँ-कहाँ,किस-किस,स्वरूप में
किन-किन चरित्रों से युक्त थे।

सर्वप्रथम,सतयुग की चर्चा करते हैं।
इस युग में पवन पुत्र भगवान श्री शंकर के स्वरूप से विश्व में अवस्थित थे,तभी तो इन्हें (रूद्रावतार) शिव स्वरूप लिखा और कहा गया है।
गौस्वामी श्री तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में
ही शंकर सुवन केसरी नन्दन कह कर सम्बोधित किया है,
इतना ही नहीं जब-जब भगवान श्री शंकर शैलनया को रामकथा सुनाते हैं और उस राम चरित्र में जहाँ कहीं भी श्री हनुमान जी का चरित्र आता है,तब-तब
भोलेनाथ स्वयं सावधान होकर और मन को भी समाहित करके श्री हनुमान जी का चरित्र कहते हैं, उस की एक झलक देखिए

सावधान पुनि मन कर शंकर।
लागे कहन कथा अति सुन्दर॥

इस चोपाई का यह प्रसंग लंका दहन का है।
लंका दहन के बाद श्री हनुमान जी महाराज प्रभु श्री राघवेन्द्र सरकार के चरणों में वन्दन करते हैं,
और प्रभु उनको हृदय से लगाते हैं,तब भोले नाथ कितने प्रसन्न हो जाते हैं,उसकी झलक उक्त चोपाई में दिखाई पड़ती हैं।
और भी-देखिए ऋष्यमूक पर्वत के मैदानी भाग में जब प्रथम वार राम और लक्ष्मण के साथ में श्री हनुमान जी का मिलन होता है, तब प्रभु के द्वारा अपना परिचय देने पर श्री केसरी नन्दन उनके पावन पगों में जब गिरते हैं,तो फिर भोलेनाथ गिरिजा से कह ही तो उठते हैं।

प्रभु पहिचान गहेउ पहि चरना।
से सुख उमा जाहिं नहिं वरना॥

इस प्रकार के अपने स्वरूप का वर्णन भोले नाथ पार्वती से करते हैं।
अत: यह प्रमाणित है कि श्री हनुमान जी सतयुग में शिवरूप में रहते हैं।

त्रेतायुग में तो पवन पुत्र श्रीराम जी की छाया हैं।
इनके बिना सम्पूर्ण चरित्र पूर्ण होता ही नहीं श्रीराम जी भरत जी, सीता जी,सुग्रीव,विभिषण आदि और सम्पूर्ण कपि मण्डल और कोई भी उनके ऋण से
मुक्त अर्थात उऋण नहीं हो सकता इस प्रकार
त्रेतायुग में तो हनुमान जी साक्षात विराजमान है।

द्वापर युग में श्री बजरंग बली अर्जुन के रथ पर विराजित हैं,इसका बड़ा ही सुन्दर प्रसंग है।

महाभारत के अनुसार द्रोपदी के समीप में रहने का पांचों पाण्डवों को योगश्वर श्रीकृष्ण ने एक-एक वर्ष का समय निर्धारित किया था,साथ में ये शर्त भी रखी
थी कि यदि एक भाई के समय दूसरा कोई जाता है तो उसे बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ेगा,और यह वनवास अर्जुन को ही युधिष्ठिर के समय द्रोपदी के समीप जाने पर मिला,और उस समय में अर्जुन ने तीर्थों में ही पर्यटन अधिक किया।

इसी प्रकार एक बार किसी तीर्थ में अकस्मात ही अर्जुन का हनुमान जी से मिलन हो जाता है।
भक्त जब भक्त से मिलता है तो निश्चय ही भागवत चर्चा प्रारम्भ हो जाती है।
तभी हनुमान जी से अर्जुन ने पुछा अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे।

हनुमान जी बोले में केवल उपस्थित ही नहीं था किन्तु युद्घ भी कर रहा था।

तभी अर्जुन ने कहा आपके स्वामी मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे फिर उन्हें समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतू बनवाने की क्या आवश्यकता थी,यदि में वहाँ उपस्थित होता तो समुद्र पर वाणों का पुल बना देता जिससे आपका पूरा वानर दल पार होता।

तभी श्रीहनुमान जी ने कहा असम्भव,वाणों का पुल वहाँ पर कोई काम नहीं कर पाता।
हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो वाणों का पुल छिन्न-भिन्न हो जाता।

अर्जुन ने कहा नहीं, देखो ये सामने सरोवर हैं,में उस पर बाणों के पुल का निर्माण करता हूँ,आप इस पर चढ़ कर सरोवर को पार कर जाओगे,यदि आपके चलने से पुल टूट जायेगा तो में अग्रि में प्रवेश कर जाऊंगा,और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्रि
में प्रवेश करना पड़ेगा।

हनुमान जी बोले मुझे स्वीकार है।
तब अर्जुन ने अपने प्रचंड वाणों से पुल तैयार
कर दिया।
जब तक पुल बन कर तैयार नहीं हुआ तब तक तो हनुमानजी अपने लघु रूप में ही रहे,लेकिन पुल के वन जाने पर हनुमान जी महाराज ने अपना रूप भी उसी समय का सा कर लिया।

जैसा श्री तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में वर्णन किया है।

कनक भूधरा कार शरीरा।
समय भयंकर अति वल वीरा॥

और ऐसी ही झाँकी इस श्‍लोक में दिखाई देती हैं।

उल्लंघ्य सिधो: सलिलं सलीलांय:
शोक कन्हिं जनकात्म जाया।
आदाय ते नैव ददाह लंकाम्।
नमामि तं प्रान्जिलि रान्जनेयं॥

रामजी का स्मरण करके हनुमान जी महाराज उस वाणों के पुल पर चढ़ गए।

पहला पग रखते ही पुल सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया,किन्तु पुल टूटा नहीं तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।

तभी श्री हनुमान जी महाराज पुल से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि अग्रि तैयार करो।

अग्रि प्रज्‍वलित हुई,वैसे अग्रि में इतनी शक्ति नहीं कि श्रीहनुमान जी महाराज को जला सके जैसे ही हनुमान जी महाराज अग्रि में कूदने चले वैसे लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और बोले ठहरो।

तभी अर्जुन और हनुमान ने प्रणाम किया।
इस पर प्रभु ने कहा क्या वाद विवाद चल रहा है बताओ।
इस पर हनुमान जी ने सारा प्रसंग सुनाया।
तब सब प्रसंग सुनने के पश्चात प्रभु ने कहा आपका तीसरा चरण पुल पर पड़ा।

उस समय में कछुआ बनकर पुल के नीचे लेटा
हुआ था।
हनुमान के पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से भी
रक्त निकल गया।
यह सुनकर हनुमान को काफी कष्‍ट हुआ और उनहोंने क्षमा मांगी।
मैं तो बड़ा अपराधी निकला,मेरा ये अपराध कैसे
दूर हो।
तब दयालु प्रभु ने कहा ये सब मेरी इच्छा से हुआ है।

आप मन खिन्न मत करो।
मेरी आज्ञा है,कि तुम अर्जुन के रथ और ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो।
इसलिये द्वापर में श्री हनुमान जी महाराज अर्जुन के ध्वजा पर स्थिति है।
ये द्वापर का प्रसंग रहा।

कलियुग में श्री हनुमान जी महाराज

यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारूतिं नमत राक्षसान्तक॥

कलियुग में जहाँ-जहाँ भगवान श्रीराम की कथा कीर्तन इत्यादि होते हैं।
वहाँ हनुमान जी गुप्त रूप में विराजमान रहते हैं।

सीताजी के वचनों के अनुसार -

अजर अमर गुन निधि सुत होहू ।।
करहु बहुत रघुनायक छोहू ॥

हनुमान जी महाराज कलियुग में गन्धमादन पर्वत
पर निवास करते हैं ऐसा श्रीमद भागवत में वर्णन आता है।
अत्यन्त बलशाली,परम पराक्रमी,जितेन्द्रिय,ज्ञानियों में आग्रगण्य तथा भगवान् राम के अनन्य-भक्त श्रीहनुमान जी का जीवन भारतीय जनता के लिए सदा से प्ररेणादायक रहा है।

वे वीरता की साक्षात् प्रतिमा है एवं शक्ति तथा बल-पराक्रम की जीवन्त मूर्ति।
देश-देशान्तर विजयिनी भारतीय मल्ल-विद्या के यही आराध्य है,इष्टï है।
आप कभी अखाड़ों में जाएं तो वहाँ आपको किसी दीवार के आले में या छोटे -मोटे मन्दिर में प्रतिष्ठिïत महावीर की प्रतिमा अवश्य मिलेगी।

उनके चरणों का स्पर्श और नाम स्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य शुरू करते हैं।

जब भारत-भू पर मुस्लिम-साम्राज्य की काली घटाएं छा गई थी,चारों और अल्लाहों अकबर का ही गर्जन सुनाई देता था।
उस समय प्रात: स्मरणीय श्री गोस्वामी तुलसीदास
जी महाराज ने हनुमान-चालीसा,हनुमान-बाहुक, संकटमोचनादि रचनाओं द्वारा निष्प्राण हिन्दु-जाति की नसों में प्राण फूंकते हुए स्वयं भी काशीपुरी में संकट-मोचन हनुमान की स्थापना की और अपने
भक्तों द्वारा भी स्थान-स्थान पर हनुमत्पूजा का
प्रचार कराया।

औरंगजेब काल में उन्हीं के आदर्श पर छत्रपति शिवाजी ने दश-दश कोश की दूरी पर हनुमान मन्दिर की स्थापना कर उन्हीं मारूती-नन्दन के नेतृत्व में वहां अखाड़े और दुर्ग की स्थापना की थी।

यही अखाड़े आगे चलकर हिन्दु-धर्म संरक्षा के गढ़ बने और इन्हीं की सहायता से भारत से यवन-साम्राज्य का कलंक धोया जा सकता।
आज भी आप दक्षिण में जाइये तो ग्राम-ग्राम में आपको ग्राम-रक्षक के रूप में हनुमान जी की मूर्ति स्थापना हुई मिलेगी,जिसे ग्राम-मारूत कहा जाता है।
युद्घप्रिय महाराष्टï जाति के हनुमान जी परम
आराध्य हैं,
आज भी वहां हनुमत्पूजा का बड़ा प्रचार है।
वीरता में हनुमान जी का कोई सानी नहीं।

ये कारण है कि भारत-सरकार भी सर्वोत्कृष्टï वीरता-पूर्ण कार्य के लिये महावीर चक्र नामक स्वर्ण-पदक ही प्रदान करती है।

भारत इतिहास के सर्वोत्कृष्टï योद्घा अर्जुन ने अतुल पराक्रम के नाते इन्हें ही अपने रथ की ध्वजा पर स्थान दिया था।

हनुमान जी केवल धीर-वीर ही नहीं है।
भगवान श्रीराम के चरणों को स्पर्श करता हुआ उनका दिव्य रूप,उनकी उत्कट स्वामि-भक्त,
अनन्य-निष्ठï और प्रशंसनीय विनय का जीता-जागता चित्र है।
उन जैसी अनन्य-भक्ति संसार में विरले जनों को ही प्राप्त होती है।
यदि मनुष्य पूर्ण श्रद्घा और विश्वास से इनका आश्रय ग्रहण कर लें तो फिर तुलसीदास जी की भांति उसे राम-दर्शन होने में देर नहीं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने -

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा।
होई सिद्घि साखी गौरीशा॥-

जैस प्रबल उक्ति अपने अनुभव के आधार पर ही कही है,केवल तुक मिलाने मात्र के लिए रहीं।

क्या हनुमान बन्दर थे?
हनुमान् जी के संबंन्ध में यह प्रश्र प्राय: सर्वत्र उठता है कि 'क्या हनुमान जी बन्दर थे ?

कुछ लोग रामायणादि ग्रंथों में लिखे हनुमान जी
और उनके सहयोगी तथा सजातीय बान्धव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ 'वानर,कपि,शाखामृग, प्लवंगम आदि विशेषण पढ़कर और उनकी पुच्छ,लांगूल, बाल्धी और लाम की करामात से
लंका-दहन का प्रत्यक्ष चमत्कार अनुभव करके
एवं यत्र-तत्र सर्वत्र सपुच्छ प्रतिमाएं देखकर उनको
वर्तमान पशु प्राय: बन्दरों जैसा मानने में ही सनातन धर्म का गौरव मानते हैं।

दूसरा दल,जो कि अपने को बुद्विवादी समझता है,
वह रामायण के कपित्व-द्योतक अंश को विधर्मी-प्रक्षिप्त बताकर अपनी कल्पना से उन्हें पुच्छरहित अपटूडेट मानव कहने में ही बुद्घि का सदुपयोग अनुभव करता है।

हम इन तीनों ही बलों से पूछना चाहते हैं कि
आखिर हनुमान जी के अस्तित्व में ही तुम्हारे
पास क्या प्रमाण है ?
कहना न होगा कि दोनों का यही उत्तर हो सकता
है कि रामायण।
जब 'रामायण के आधार पर ही हनुमान जी का होना सिद्घ मानते हो तब,तुम दोनों ही 'अर्धकुक्कुटी न्याय से रामायण की आधी बात को क्यों मानते हो और
आधी को क्यों छोड़ते हो?

पशुप्राय: मानने वाले दल को श्री वाल्मीकीय रामायण के उन प्रमाणों को भी तो समझने का प्रयत्न करना चाहिये जिनसे कि हनुमान जी का व्याकरण-बेत्तृत्व,शुद्घ-भाषण-कला-कुशलत्व, बुद्घिमता-वरिष्ठता एवं ज्ञानिनामग्रगण्यत्व सिद्घ होता है।

जैसे-जब भगवान राम को पहले पहल हनुमान
मिले तो उनकी बातचीत से प्रभावित होकर
भगवान् ने एकान्त में लक्ष्मण से कहा कि -

कृत्स्नं व्याकरणं शास्त्रमनेन बहुधा श्रुतम्॥
बहु व्याहरताऽनेन न किञ्चिदपशब्दितम्।।

अर्थात् - (हे लक्ष्मण!) मालूम पड़ता है कि इस व्यक्ति ने समस्त व्याकरण शास्त्र का खूब स्वाध्याय किया है तभी तो इस लम्बी चौड़ी बातचीत के दौरान में इसने एक भी अशुद्ध शब्द नहीं बोला।

क्या रामायण के इस सुस्पष्ट वर्णन की विद्यमानता
में रामायण में आस्था रखने वाला कोई हनुमद्-भक्त उन्हें कीकी कीकी करके मकानों की ईंट फाडऩे वाले और कपड़ा लत्ता उठा भागने वाले पशुप्राय: लालमुँहे बन्दरों का किवा कलमुँहे लंगूरों का सजातीय मानने को उद्यत हो सकता है ?

फिर आप रामायण के लेख के सर्वथा विपरीत उन्हें पशु मानने का ही दुराग्रह क्यों करते हैं ?

इसी प्रकार कथित बुद्घिवादी-दल से भी प्रष्टब्य है कि यदि तुम लोग रामायण को
कोरा कल्पित उपन्यास ही मानते हो तो फिर हनुमान को रामायण के लेख के विरूद्घ बना डालने में अपना बुद्घि-वैभव क्यों खर्च करते हो?
कल्पित उपन्यास को बुद्घिग्राह्यï बनाने से क्या लाभ होगा ?
उसे लकीर के फकीर आस्तिकों के लिये ज्यों का त्यों रहने दीजिये।
और यदि हनुमान जी के अस्तित्व को एक ऐतिहासिक-तथ्य स्वीकार करते हो तो फिर उनके होने में जो रामायण प्रमाण है, वही रामायण उनके स्वरूप और चरित्र के चित्रण में भी एक मात्र साक्षी है, ऐसी दशा में मिथ्या-कल्पना क्यों करते हो?

वाल्मीकी जी ने जहाँ उन्हें विशिष्टï पण्डित,राजनीति में धुरन्धर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है,वहाँ उनको लोमश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है।

इसलिये ईमानदारी का तकाजा है कि उक्त दोनों वर्णनों का समन्वय करके हनुमान जी का स्वरूप स्थिर कीजिये यही न्याय होगा!

नौ लाख वर्ष पूर्व विलक्षण जातिहनुमान विषयक रामायण के समस्त वर्णन को मनन करने पर यह सिद्घान्त स्थिर होता है कि आज से अन्यून नौ लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भी भारतवर्ष में विद्यमान थी,जो कि आज के हाथ पांव दोनों से
चलने वाले बन्दरों की भांति पशुप्राय: नहीं थी किन्तु जहाँ वह अर्ध-सभ्य,पढ़ी-लिखी,राज्यसत्ता-सम्पन्न और एक वीर जाति थी,वहाँ उसके शरीर पर साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक रोम होते थे तथा पंूछ भी होती थी।

अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्टï हो गई परन्तु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है,जिनकी पूँछ प्राय: छ: इंच के लगभग अवशिष्टï रह गई है।

यह प्राय: सभी पुरातत्वेत्ता अनुसन्धायक एक मत से स्वीकार करते है कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।

अमेरिका की प्रसिद्घ रैड इण्डियन नामक जाति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है,यदि यही क्रम एक सहस्राब्दी पर्यन्त चलता रहा तो वह भी अनेक जातियों की भांति केवल पुस्तकों के वर्णन में अवशिष्ट रह जाएगी।

इसलिये वहाँ की सरकार अब उसकी विशेष संरक्षा
के लिये प्रयत्नशील होने लगी है।

'विधर्मियों ने हिन्दु जाति के अपमान के लिये पूँछ वाली बात रामायण में घुसेड़ दी यह कल्पना भी सर्वथा निर्मूल है,क्योंकि काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पुरातन हस्तलिखित और ताड़पत्रों पर खुदी सभी प्रतियों में प्रक्षेप कर सकने की बात कथमपि विश्वास योग्य नहीं है।

फिर यदि किसी को हिंदु जाति के अपमानार्थ ऐसा कुकृत्य करना ही था तब उसे राम जी के एक साधारण सेवक के पूँछ लगाने की बजाय हिन्दु जाति के सर्वस्व भगवान् राम को ही लगानी चाहिये थी।

इसलिये यह सब कल्पानाएँ व्यर्थ हैं,श्री हनुमान् जी महाराज जहाँ बुद्घिमान् विद्वान परमज्ञानी और वीर शिरोमणि थे,वहाँ वे पुच्छधारी लोमश वानर भी थे यही रामायणों का समन्वित मथितार्थ है।

हनुमान जी के पूजन नाम-संकीर्तन आदि के अतिरिक्त,शारीरिक शक्ति-प्रदर्शन के खेलों
का आयोजन होना चाहिये।
नगर के बालकों की दौड़,लाठी,तलवार,गदका इत्यादि खेलों का सामूहिक आयोजन हो
और भारतीय इतिहास के वीर की जीवन-गाथा जनसाधारण को समझाई जानी चाहिए।
राष्ट्र की अकर्मण्यता और भीरूता को मिटाकर जनता को शक्तिशाली बनाने के लिये
देश में हनुमत जयती जैसे उत्सवों की परम आवश्यकता है।
उन जैसा सदाचार,उन जैसा पराक्रम,अनुशासन और ब्रह्मचर्य किसी भी जाति व राष्ट्र के लिये स्थायी गौरव का कारण हो सकता है।

श्री हनुमान जी के चमत्कारी बारह नामों की महिमा

हनुमान जी के बारह नाम का स्मरण करने से ना सिर्फ उम्र में वृद्धि होती है बल्कि समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति भी होती है।
बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं
एवं आकाश-पाताल से रक्षा करते हैं।

प्रस्तुत है केसरीनंदन बजरंग बली के 12 चमत्कारी और असरकारी नाम :

हनुमानद्द्रजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः।
रामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः॥

उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा॥

एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः।
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्॥
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्।
(आनंद रामायण 8/3/8-11)

उनका एक नाम तो हनुमान है ही,दूसरा अंजनी सूनु,तीसरा वायुपुत्र,चौथा महाबल,पांचवां रामेष्ट
(राम जी के प्रिय),छठा फाल्गुनसख (अर्जुन के मित्र),सातवां पिंगाक्ष (भूरे नेत्र वाले) आठवां अमितविक्रम,नौवां उदधिक्रमण (समुद्र को लांघने वाले),दसवां सीताशोकविनाशन (सीताजी के शोक को नाश करने वाले),ग्यारहवां लक्ष्मणप्राणदाता
(लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवित करने वाले) और बारहवां नाम है- दशग्रीवदर्पहा(रावण के घमंड को चूर करने वाले) ये बारह नाम श्री हनुमानजी के गुणों के द्योतक हैं।

हनुमान जी के 12 असरकारी नाम
1 ॐ हनुमान
2 ॐ अंजनी सुत
3 ॐ वायु पुत्र
4 ॐ महाबल
5 ॐ रामेष्ठ
6 ॐ फाल्गुण सखा
7 ॐ पिंगाक्ष
8 ॐ अमित विक्रम
9 ॐ उदधिक्रमण
10 ॐ सीता शोक विनाशन
11 ॐ लक्ष्मण प्राण दाता
12 ॐ दशग्रीव दर्पहा

नाम की अलौकिक महिमा

- प्रात: काल सो कर उठते ही जिस अवस्था में भी हो बारह नामों को 11 बार लेनेवाला व्यक्ति दीर्घायु होता है।

- नित्य नियम के समय नाम लेने से इष्ट की प्राप्ति होती है।

- दोपहर में नाम लेनेवाला व्यक्ति धनवान होता है।
दोपहर संध्या के समय नाम लेनेवाला व्यक्ति पारिवारिक सुखों से तृप्त होता है।

- रात्रि को सोते समय नाम लेनेवाले व्यक्ति की शत्रु से जीत होती है।

- उपरोक्त समय के अतिरिक्त इन बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं एवं आकाश पाताल से रक्षा करते हैं।

- लाल स्याही से मंगलवार को भोजपत्र पर ये बारह नाम लिखकर मंगलवार के दिन ही ताबीज बांधने से कभी ‍सिरदर्द नहीं होता।
गले या बाजू में तांबे का ताबीज ज्यादा उत्तम है। भोजपत्र पर लिखने के काम आनेवाला पेन नया
होना चाहिए।

हनुमन्त त्रिकाल वंदनं--

प्रातः स्मरामि हनुमन् अनन्तवीर्यं
श्री रामचन्द्र चरणाम्बुज चंचरीकम् ।
लंकापुरीदहन नन्दितदेववृन्दं
सर्वार्थसिद्धिसदनं प्रथितप्रभावम् ॥

माध्यम् नमामि वृजिनार्णव तारणैकाधारं
शरण्य मुदितानुपम प्रभावम् ।
सीताधि सिंधु परिशोषण कर्म दक्षं वंदारु
कल्पतरुं अव्ययं आञ्ज्नेयम् ॥

सायं भजामि शरणोप स्मृताखिलार्ति
पुञ्ज प्रणाशन विधौ प्रथित प्रतापम् ।
अक्षांतकं सकल राक्षस वंश धूम केतुं
प्रमोदित विदेह सुतं दयालुम् ॥

ॐ कुमार ब्रह्मचारिणे नम:,,
ॐ सीताशोक विनाशकाय नम:
ॐ लंकिनीभञ्जनाय नम:,,
ॐ सिंहिका प्राण भन्जनाय नम:
ॐ रामचूडामणि प्रदायकाय नम:,,
ॐ महिरावण मर्दनाये नम:
ॐ हनुमते नम:,,
ॐ नम: शिवाय
ॐ श्रीरामाय नम:

हनुमान मंत्र :

श्री हनुमंते नम:
अतुलित बलधामं, हेमशैलाभदेहं।
दनुजवनकृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुण निधानं, वानराणामधीशं।

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,

सदा सुमंगल,,
जय श्री हनुमान,,,
ॐ हनुमते नम:
जय भवानी
जय श्री राम

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